अजमेर शहर । धम्र नगरी । भारत का मक्का

राजस्थान के प्रथम एवं देश के दूसरे पूर्ण साक्षर जिले के पुरस्कार से सम्मानित व साम्प्रदायिक सद्भाव का संगम, ‘राजस्थान के हृदय स्थल‘ व ‘भारत के मक्का‘ एवं ‘धर्म नगरी‘ आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध अजमेर नगर की स्थापना चौहान राजा अजयराज ने 1113 ई. में की, परंतु अजयमेरु दुर्ग की स्थापना 7वीं सदी में चौहान शासक अजयपाल द्वारा की गई थी। यहाँ के चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय के तराइन के दूसरे युद्ध (1192 ई.) में मुहमद गौरी से हार जाने के बाद यहाँ मुस्लिम शासन की स्थापना हुई एवं अजमेर दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। अकबर द्वारा 1558 ई. में अजमेर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया तथा इसे एक सूबा बनाकर इसे राजपूताना व गुजरात के नियंत्रण हेतु मुख्यालय बना लिया। इंग्लैण्ड के शासक जेम्स प्रथम के दूत सर टॉमस रो मुगल सम्राट जहाँगीर से भारत में व्यापार करने की अनुमति लेने हेतु 22 दिसम्बर, 1615 को अजमेर आ गये थे। उन्होंने जहाँगीर से अकबर के किले (मैग्जीन) में 10 जनवरी, 1616 को मुलाकात की थी एवं भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की थी। औरंगजेब द्वारा उत्तराधिकार का अंतिम युद्ध अजमेर के निकट दौराई स्थान पर जीता गया था। ब्रिटिश शासन के दौरान अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन केन्द्रीय कमिश्नरी प्रांत था। अंग्रेजी शासन के दौरान यहाँ एजीजी (Agent to Governor General) का कार्यालय सर्वप्रथम सन् 1832 ई. में अजमेर में स्थापित किया गया था जो बाद में 1857 ई. में माउंट आबू स्थानांतरित हो गया। अजमेर जिले का जिला मुख्यालय अजमेर शहर कई महान् विभूतियों की कर्मस्थली रहा है। यह अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने के संग्राम में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानी अर्जुन लाल सेठी व हरिभाऊ उपाध्याय की कार्यस्थली रहा है। स्वतंत्रता संग्राम में जूझ रहे क्रांतिकारियों को खुले हाथों से वित्तीय सहायता प्रदान करने वाले दानवीर सेठ दामोदरदास राठी भी ब्यावर (अजमेर) के ही थे। महान् तपस्वी एवं आर्य समाज के संस्थापक व ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ के लेखक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी अपना कुछ समय

अजमेर में व्यतीत कर इसका लेखन कार्य किया था। यहीं स्वामीजी की समाधि भी स्थित है। अजमेर जिले के ब्यावर शहर से सूचना के अधिकार कानून की पृष्ठभूमि तैयार हुई थी, जब मैग्सेसे पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध समाज सेविका श्रीमती अरुणाराय ने 6 अप्रैल, 1995 को ब्यावर में सूचना के अधिकार कानून बनाने एवं जवाबदेही एवं पारदर्शी प्रशासन की स्थापना के अधिकार के लिए आंदोलन की शुरूआत की थी। उनके इन्हीं प्रयासों से राज्य में वर्ष 2000 में ही सूचना का अधिकार लागू कर दिया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात् 1956 तक यह ‘सी’ श्रेणी का राज्य था। श्री हरिभाऊ उपाध्याय यहाँ के प्रथम एवं एकमात्र मुख्यमंत्री रहे। 1956 में अजमेर का राजस्थान में विलय किया गया। यह राजस्थान का 26वाँ जिला बना तथा अजमेर संभाग का गठन किया गया। यहाँ लोकसेवा आयोग, राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड एवं राजस्व मंडल स्थापित किये गये । 14 सितम्बर, 2013 को अजमेर विकास प्राधिकरण का गठन किया गया। अजमेर शहर को राष्ट्रीय विरासत शहर विकास एवं संवर्द्धन योजना में शामिल किया गया है। 

• क्षेत्रफल : 8481 वर्ग कि.मी. 

  • राजस्थान के मध्य में स्थित अजमेर जिले की उत्तरी सीमा नागौर व जयपुर, पूर्वी सीमा टोंक, दक्षिणी सीमा भीलवाड़ा तथा राजसमंद तथा पश्चिमी सीमा पाली जिले को स्पर्श करती हैं। 

• पश्चिमी राजस्थान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी ‘लूनी नदी’ का उद्गम स्थल अजमेर जिले की नाग पहाड़ियाँ ही है।

पुष्कर शहर

अजमेर शहर के उत्तर पश्चिम में 11 किमी दूरी पर स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल। यहाँ पवित्र पुष्कर झील है, जिसमें 52 घाट हैं। यहाँ ब्रह्माजी का भव्य मंदिर है। पुष्कर को हिन्दुओं के 5 प्रमुख तीर्थों में सबसे पवित्र माना गया है। पुष्कर को आदि तीर्थ व तीर्थराज कहा गया है। पुष्कर का एक अन्य नाम ‘कोकण तीर्थ‘ भी था। यहाँ पास में प्रसिद्ध पौराणिक स्थल पंचकुण्ड स्थित है, जहाँ पांडव कुछ समय तक अज्ञातवास में रहे थे। पुष्कर में प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा तक राजस्थान का सबसे बड़ा सांस्कृतिक मेला पुष्कर मेला‘ भरता है। यहाँ कार्तिक स्नान का बड़ा महत्त्व है। पुष्कर झील में ‘दीपदान‘ की परंपरा है। पुष्कर झील के तट पर आमेर के राजा मानसिंह द्वारा निर्मित भव्य महल मानमहल है, जिसे अब RTDC द्वारा होटल सरोवर में परिवर्तित कर दिया गया है। सन्तोष बावला की छतरी, पुष्कर (अजमेर) में है। मुख्य पुष्कर के पास ही बूढ़ा पुष्कर व कनिष्क पुष्कर के नाम से दो पवित्र झीलें हैं। पुष्कर में वाराह घाट के सामने जहाँगीर के महल (बादशाही महल) स्थित हैं। इस महल का निर्माण मुगल बादशाह जहाँगीर द्वारा करवाया गया था। यहाँ आमने-सामने ऊँची जगती पर दो बारहदरियाँ बनी है तथा मध्य में स्तंभयुक्त चबूतरा है। दक्षिणी बारादरी पर फारसी में लेख (1615 ई. का) है।

ख़्वाजा गरीब नवाब की दरगाह-

हजरत शेख उस्मान हारुनी के शिष्य व भारत में सूफी मत के चिश्ती सिलसिले के संस्थापक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह सभी सम्प्रदायों के लोगों का आस्था स्थल है एवं साम्प्रदायिक सद्भाव का जीवन्त उदाहरण है। ख्वाजा गरीब नवाज की यह दरगाह अजमेर में तारागढ़ की ۱۲ पहाड़ी की गोद में बनी हुई है। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईस्वी 1142 (14 रजब) को संजर (ईरान) में हुआ था। इनके पिता का नाम हज़रत ख्वाजा सैयद गयासुद्दीन व माता का नाम बीबी साहेनूर था। ये पृथ्वीराज चौहान के काल में भारत आए एवं अजमेर को अपनी कार्यस्थली बनाया। इनके गुरु ख्वाजा उस्मान हारुनी थे। 1233 ईस्वी में ख्वाजा साहब का इंतकाल हुआ। 1464 ईस्वी में माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी के पुत्र सुल्तान गयासुद्दीन ने ख्वाजा साहब की पक्की मज़ार एवं उस पर गुम्बद बनवाया। मुख्य प्रवेश स्थान पर बुलन्द दरवाजा 1469 से 1509 के मध्य मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी द्वारा बनवाया गया। यह दरगाह की सबसे पुरानी इमारत है। बादशाह अकबर के जमाने से दरगाह की शोहरत अधिक बढ़ी। स्वयं अकबर पुत्र सलीम (जहाँगीर) के जन्म के बाद 5 फरवरी, 1570 को आगरा से पैदल चलकर ख्वाजा की जियारत करने आये एवं दरगाह में अकबरी मस्जिद का निर्माण सन् 1571 में करवाया। दरगाह में हर वर्ष हिज्री सन् के रज्जब माह की 1 से 6 तारीख तक (6 दिन का) ख्वाजा साहब का विशाल उर्स भरता है जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा उदाहरण है। 

प्रतिवर्ष ख्वाजा साहब के उर्स के करीब एक सप्ताह पूर्व बुलंद दरवाजे पर भीलवाड़ा के गौरी परिवार द्वारा झंडा चढ़ाने की रस्म बड़ी धूमधाम से पूरी की जाती है।

निजाम द्वार : यह दरगाह का मुख्य प्रवेश द्वार है जिसका निर्माण हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान द्वारा करवाया गया। इसी द्वार के ऊपर दो नगाड़े रखे हैं, जो बादशाह अकबर द्वारा भेंट किए गए थे। 

देग : यहाँ दो देग छोटी व बड़ी स्थित है। बड़ी देग बादशाह अकबर व छोटी देग बादशाह जहाँगीर द्वारा तैयार करवाकर क्रमशः 1567 व 1613 ई. में भेंट की गई थी। देग में पकाई गई सामग्री को मुफ्त बाँटा जाता है जिसे तबर्रुक कहते हैं। देग के इसी चौक के बायीं ओर लंगरखाना व दायीं ओर महफिलखाना है। महफिलखाना का निर्माण सन् 1888-1891 की अवधि में बशीरूद्दौला सर असमान जाह द्वारा करवाया गया था। 

मुख्य मजार : गरीब नवाज ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन चिश्ती की मजार पर निर्मित भवन के निर्माण का श्रेय मुख्य रूप से माण्डू के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी को है। इस भवन का निर्माण कार्य 1537 ई. में पूरा हुआ। मजार के भवन के मुख्य द्वार के बाहर बेगमी दालान है जिसका निर्माण बादशाह शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा द्वारा करवाया गया था। मुख्य मजार के चारों ओर चाँदी का कटहरा जयपुर के संस्थापक महाराज सवाई जयसिंह द्वारा बनवाया गया था।

• शाहजहानी मस्जिद : दरगाह की इस इमारत का निर्माण शाहजहाँ द्वारा 1638 ई. में करवाया गया था। 

 दरगाह की अन्य मजारें : यहाँ ख्वाजा साहब की पुत्री बीबी हाफिज जमाल, शाहजहाँ की बेटी चिमनी बेगम (जिसका बालपन में ही चेचक से अजमेर में देहांत हो गया था), ख्वाजा मुइनुद्दीन के दो पोते, मांडू के दो सुल्तान तथा उस भिश्ती सुल्तान की कब्र भी दरगाह क्षेत्र में ही है, जिसे डेढ़ दिन के लिए दिल्ली का सुल्तान बनाया गया था। उस भिश्ती ने बादशाह हुमायूँ को गंगा में डूबने से बचाया था।

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